Laapataa Women Audit : चार्ली चैप्लिन की बात सच साबित करती सुंदर फिल्म
किरण राव की फिल्म 'लापता लेडीज' 1 मार्च को रिलीज हो रही है. इसमें स्पर्श श्रीवास्तव, नितांशी सिंह और प्रतिभा लीड रोल्स में हैं. रवि किशन ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. आमिर खान ने फिल्म में पैसा लगाया है. फिल्म देखने से पहले रिव्यू पढ़ लीजिए.
कुछ मर्दवादी बहेतुओं ने महिलाओं का अस्तित्व दक़ियानूसी दलदल में फेंक दिया है. ऐसे में किरण राव की फ़िल्म 'लापता लेडीज' इस दलदल में गले तक धंसकर, महिलाओं का अस्तित्व तलाशने की कोशिश कर रही है. इसके लिए उसके पास तीन प्रमुख किरदार हैं-पुष्पा रानी, फूल कुमारी और दीपक.
जैसा कि ट्रेलर में दिख रहा है(अभी तक नहीं देखा है, तो पहले देख आइए), दीपक की शादी फूल कुमारी से होती है. जिस ट्रेन से दोनों आ रहे होते हैं, उसी में एक और दुल्हन है, नाम है पुष्पा. पुष्पा ने भी फूल की तरह ही लम्बा घूंघट काढ़ रखा है. धोखे से दीपक फूल की जगह पुष्पा को ट्रेन से उतार लेता है. दुल्हन बदल जाती है. माने लेडीज हो जाती हैं लापता. एक जानबूझकर लापता होने की कोशिश करती है, और दूसरी सच्ची-मुच्ची में. इन सबके चक्कर में थाना-पुलिस होता है. खोई हुई स्त्रियों की खोजबीन शुरू होती है. इस ट्रेजिडी से पनपती है कॉमेडी.
हमारे होनहार पुरखे चार्ली चैप्लिन कह गए हैं, "life is a misfortune when found in close-up, however parody in remote chance." इसी का इस्तेमाल किरण राव ने फ़िल्म में किया है. यदि आप इसे सिर्फ एंटरटेनमेंट के पर्पज से देखेंगे, तो ये कॉमेडी दिखेगी. थोड़ा करीब जाकर इसकी लेयर्ड स्टोरीटेलिंग समझेंगे, तो इसके हर फ्रेम में ट्रेजिडी नज़र आएगी. हम ऐसा क्यों कह रहे हैं, आगे के तमाम शब्दों में आपको इसकी झलक मिल जाएगी. बाक़ी ज़्यादा जानकारी के लिए पिक्चर देखनी पड़ेगी.
बहरहाल, किरण राव ने डिटेलिंग पर पूरा ज़ोर दिया है. इसका एक उदाहरण दिए देते हैं. पुष्पा के नाखूनों पर कैमरा क्लोज जाता है. देखकर लगता है इन हाथों से बर्तन मांजे गए हैं. नाखूनों की नेलपॉलिश घिसी हुई है. अमूमन इतनी बारीकी फिल्मों में देखी नहीं जाती. गांव का सेटअप जैसा होना चाहिए, उसे ठीक उसी तरह डिजाइन किया गया. प्रोडक्शन डिजाइन फेक नहीं लगता. प्रॉप प्लेसमेंट भी ठीक जगह किए गए हैं. सिर्फ मुझे 2001 की कहानी में मोबाइल फोन का दहेज में दिया जाना थोड़ा अखरा. लेकिन फिल्ममेकर को इतनी क्रिएटिव लिबर्टी दी ही जा सकती है. बाक़ी फोन उस वक़्त तक आ ही गए थे.
ट्रेन के अंदर के शॉट्स मुझे निजी तौर पर बहुत पसंद आए. ज़्यादातर फिल्मों में ट्रेन के डिब्बे के अंदर कैमरा स्टिल रखा जाता है, और ऑब्जेक्ट मूव करता है.(जब तक वो कोई एक्शन शॉट न हो) यहां कैमरा और ऑब्जेक्ट दोनों मूव कर रहे हैं. चलती हुई ट्रेन के कम स्पेस में कैमरे की सफाई सुंदर है. इसके लिए सिनेमैटोग्राफर विकास नवलखा को बधाई. हालांकि किरण का कहना है कि ट्रेन वाले सीन्स में विकास को कोविड हो गया था, उन्होंने ऑनलाइन ही डायरेक्शन दिया था.
इसके अलावा कुछ-कुछ जगहों पर कैमरा एंगल्स के ज़रिए कॉमेडी पैदा की गई है. 'लापता लेडीज' की कहानी बिप्लव गोस्वामी ने लिखी है. अगर आप अखबार पढ़ते रहे हैं, तो शायद ऐसी कहानियां आपने पढ़ी हों. पर स्नेहा देसाई के स्क्रीनप्ले ने इस कहानी को जीवंत कर दिया है. रेल की रफ़्तार से भागते हुए स्क्रीनप्ले में भी एक स्थिरता है. सबटेक्स्ट की थोड़ी कमी है. पर इस कमी को स्नेहा देसाई ने अपने किरदारों और दिव्यानिधि शर्मा के साथ मिलकर लिखे संवादों से पूरा कर दिया है.
स्नेहा ने रेलवे स्टेशन पर चाय बेचने वाली मंजू का एक मजबूत किरदार गढ़ा है. पथरीले जीवन से गुज़रकर वो भी पत्थर हो गई है. उसके डायलॉग्स पितृसत्ता पर चोट करने वाले हैं. एक जगह वो फूल से कहती है, "इस देश में बहुत सालों से लड़कियों के साथ एक फ्रॉड चल रहा है - भले घर की बहू." मंजू के किरदार का पथरीलापन, अल्हड़पन, अक्खड़पन और प्रेमिलता छाया कदम ने बखूबी निभाई है. उनके बारे में सबसे पहले बता रहा हूं क्योंकि वो ही इस फ़िल्म का सब्टेक्स्ट हैं. उनके हेल्पर छोटू की भूमिका में सतेंद्र सोनी ने भी अर्थपूर्ण अभिनय किया है.
बहरहाल, मंजू जैसे पथरीले किरदार के बीच फूल कुमारी जैसा कोमल कैरेक्टर भी फ़िल्म में है. उसका भोलापन और मासूमियत तमाम हिंदुस्तानी लड़कियों की दास्तान है. नितांशी गोयल ने इस किरदार की इनोसेंस बराबर पकड़ी है. कमाल बात ये है, फ़िल्म की शूटिंग के वक़्त वो महज 14 साल की बच्ची थीं. पर उनकी एक्टिंग में प्रौढ़ता की झलक है. उन्हें अभिनय यात्रा में बहुत दूर तक जाना है. फूल जितनी मासूम है, पुष्पा उतनी ही चपल. इस किरदार को देखकर मज़ाज़ की याद आती है. जब वो कहते हैं:
तिरे माथे पे ये आंचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन,
तू इस आंचल से इ
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